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सु॒प्र॒जाः प्र॒जाः प्र॑ज॒नय॒न् परी॑ह्य॒भि रा॒यस्पोषे॑ण॒ यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒नो दि॒वा पृ॑थि॒व्या म॒न्थी म॒न्थिशो॑चिषा॒ निर॑स्तो॒ मर्को॑ म॒न्थिनो॑ऽधि॒ष्ठान॑मसि ॥१८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒प्र॒जा इति॑ सुऽप्र॒जाः। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। प्र॒ज॒नयन्निति॑ प्रऽज॒नय॑न्। परि॑। इ॒हि॒। अ॒भि। रा॒यः। पोषे॑ण। यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒न इति॑ सम्ऽजग्मा॒नः। दि॒वा। पृ॒थि॒व्या। म॒न्थी। म॒न्थिशो॑चि॒षेति॑ म॒न्थिशो॑चिषा। निर॑स्त॒ इति॑ निःऽअ॑स्तः। मर्कः॑। म॒न्थिनः॑। अ॒धि॒ष्ठान॑म्। अ॒धि॒स्थान॒मित्य॑धि॒ऽस्थान॑म्। अ॒सि॒ ॥१८॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:18


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

न्यायाधीश को प्रजाजनों के प्रति कैसे वर्त्तना चाहिये, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - भो न्यायाधीश ! (सुप्रजाः) उत्तम प्रजायुक्त आप (प्रजाः) प्रजाजनों को (प्रजनयन्) प्रकट करते हुए (रायः) धन की (पोषेण) दृढ़ता के साथ (यजमानम्) यज्ञादि अच्छे कर्मों के करनेवाले पुरुष को (अभि) (परि) (इहि) सर्वथा धन की वृद्धि से युक्त कीजिये (मन्थी) वाद-विवाद के मन्थन करने और (दिवा) सूर्य्य वा (पृथिव्या) पृथिवी के तुल्य (सञ्जग्मानः) धीरतादि गुणों में वर्तनेवाले आप (मन्थिनः) सदसद्विवेचन करने योग्य गुणों के (अधिष्ठानम्) आधार के समान (असि) हो, इस कारण तुम्हारी (मन्थिशोचिषा) सूर्य्य की दीप्ति के समान न्यायदीप्ति से (मर्कः) मृत्यु देनेवाला अन्यायी (निरस्तः) निवृत्त होवे ॥१८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। न्यायाधीश राजा को चाहिये कि धर्म्म से यज्ञ करनेवाले सत्पुरुष पुरोहित के समान प्रजा का निरन्तर पालन करे ॥१८॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

न्यायाधीशेन प्रजाः प्रति कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(सुप्रजाः) शोभना प्रजा यस्य स सुप्रजाः स यथा स्यात् तथा (प्रजाः) प्रजा एव (प्रजनयन्) परमेश्वर इव प्रकटयन् (परि) सर्वतः (इहि) जानीहि (अभि) आभिमुख्ये (रायः) धनसमूहस्य (पोषेण) पुष्ट्या (यजमानम्) सुखप्रदम् (सञ्जग्मानः) धीरतादिशुभगुणेष्वासक्तः (दिवा) सूर्य्येण (पृथिव्या) भूम्या (मन्थी) मन्थितुं शीलमस्य न्यायाधीशस्य सः (मन्थिशोचिषा) सूर्य्यदीप्त्येव (निरस्तः) नितरां प्रक्षिप्त इव (मर्कः) मृत्युनिमित्तः खल्वन्यायकारी (मन्थिनः) न्यायकारिणः (अधिष्ठानम्) आधार इव (असि) ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.२.१.१७-२०) व्याख्यातः ॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - भो न्यायाधीश ! सुप्रजास्त्वं प्रजाः प्रजनयन् रायस्पोषेण सह यजमानमभिपरीहि सर्वथा तस्य धनवृद्धिमिच्छ, मन्थी त्वं दिवा पृथिव्या सञ्जग्मानो भव तद्गुणी भवेति भावः। यतस्त्वं मन्थिनोऽधिष्ठानमस्यतस्ते मन्थिशोचिषा मर्को निरस्तो भवतु ॥१८॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। न्यायाधीशो यजमानस्य पुरोहित इव प्रजाः सततं पालयेत् ॥१८॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. धार्मिक यज्ञ करणाऱ्या सज्जन पुरोहिताप्रमाणे न्यायी राजाने प्रजेचे पालन करावे.